राम वनवास- भ्रातृ संबंध की सीख

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राम वनवास ने सिखाया, भाइयों का संबंध

प्रारब्ध न्यूज़-अध्यात्म

वनवास समाप्त हुए बरसों बीत गए थे प्रभु श्रीराम और माता सीता की कृपा छाया में अयोध्या की प्रजा सुख में जीवन व्यतीत कर रही थी। युवराज भरत अपनी कर्तव्यपरायणता और न्यायप्रियता के लिए ख्यात हो चुके थे।


एक दिन संध्या के समय सरयू नदी के तट पर तीनों भाइयों संघ टहलते हुए श्रीराम से महात्मा भरत ने कहा "एक बात पूछूं भैया?" माता केकई ने आपको वनवास दिलाने के लिए मंथरा के साथ मिलकर जो षड्यंत्र किया था, क्या वह राजद्रोह नहीं था? उनके षड्यंत्र के कारण एक और राज्य के भावी महाराज और और महारानी को चौदह बरस का वनवास झेलना पड़ा तो दूसरी ओर पिता जी महाराज की दुखद मृत्यु हुई। ऐसे षड्यंत्र के लिए सामान्य नियमों के अनुसार तो मृत्युदंड दिया जाता है फिर आपने माता के कई को दण्ड क्यों नहीं दिया?


राम मुस्कुराए बोले, "जानते हो भारत, किसी कुल में एक चरित्रवान और धर्मपरायण पुत्र जन्म ले ले तो उसका जीवन उसकी असंख्य पीढ़ी के पितरों के अपराधों का प्रायश्चित कर देता है। जिस माँ ने तुम जैसे महात्मा को जन्म दिया हो उसे दण्ड कैसे दिया जा सकता है भरत?"


भारत संतुष्ट नहीं हुए कहा,"यह तो मोह है भैया, और राजा का दंडविधान मोह से मुक्त होता है। एक राजा की तरह उत्तर दीजिए कि आपने माता को दंड क्यों नहीं दिया, समझिए कि आपसे यह प्रश्न आपका अनुज नहीं अयोध्या का एक सामान्य नागरिक कर रहा है।


राम गंभीर हो गए। कुछ क्षण के मौन के बाद कहा, "अपने सगे- संबंधियों के किसी अपराध पर कोई दंड ना देना ही इस सृष्टि का कठोरतम अपराध है भरत! माता केकई ने अपनी एक भूल का बड़ा कठोर दंड भोगा है। वनवास के चौदह वर्षों में हम चारों भाई अपने-अपने स्थान की परिस्थितियों से लड़ते रहे, पर माता केकई हर क्षण मरती रही हैं।


मां केकई ने अपनी एक भूल के कारण पति खोया और चार बेटे खोए, अपना समस्त सुख खोया, या फिर भी वह उस अपराधबोध से कभी मुक्त ना हो सकीं। वनवास समाप्त हो गया तो परिवार के शेष सदस्य प्रसन्न और सुखी हो गए, पर वह कभी प्रसन्न ना हो सकीं। कोई राजा किसी स्त्री को इससे कठोर दंड क्या दे सकता है। मैं तो सदैव यह सोच कर दुखी हो जाता हूं कि मेरे कारण अनायास ही मेरी माँ को इतना कठोर दंड भोगना पड़ा।
 
 राम के नेत्रों में जल भर आया, और भरत आदि भाई मौन हो गए। राम ने फिर कहा, "और उनकी भूल को अपराध समझना ही क्यों भरत! यदि मेरा वनवास ना हुआ होता तो संसार भरत और लक्ष्मण जैसे भाइयों के अतुल्य भ्रातृप्रेम को कैसे देख पाता।

मैंने तो केवल अपने माता पिता की आज्ञा का पालन मात्र किया था, पर तुम दोनों ने तो मेरे स्नेह में चौदह वर्ष का वनवास भोगा। वनवास ना होता तो यह संसार कैसे सीखता की भाइयों का संबंध कैसा होता है

भारत के प्रश्न मौन हो गए थे। वे अनायास ही बड़े भाई से लिपट गए।

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