क्रांतिकारी भगत सिंह भारत के एक महान स्वतंत्रता सेनानी

प्रारब्ध न्यूज ब्यूरो, लखनऊ

भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को पंजाब के  गांव  बंगा, जिला लायलपुर  में  हुआ था।  जो अब पाकिस्तान में है।
अप्रैल 1919 में वे अपने परिवार के साथ अमृतसर के जलियांवाला बाग गए।उस समय भगत सिंह  करीब 12 वर्ष के थे। जब जलियांवाला  बाग  हत्या कांड हुआ। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से 12 मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग पहुँच गये। यहीं से  उनमें  क्रांति का बीज उपजा।

इस उम्र में भगत सिंह अपने चाचाओं की क्रान्तिकारी किताबें पढ़ते और सोचते थे कि इनका रास्ता सही है कि नहीं ? पढ़ने लिखने के शौक की वजह से यूरोप के अलग-अलग देशों की कई क्रांति से परिचित हुए। किशोरावस्था में समाजवादी सोच जागी और धीरे-धीरे कई संगठन से जुड़ गए।

गांधी जी का असहयोग आंदोलन समाप्त करने के बाद  वे गांधीजी  के अहिंसात्मक  तरीकों  और  क्रांतिकारियों के  हिंसक आंदोलन में से अपने रास्ते को  चुनने लगे।

जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को समाप्त कर देने के कारण उनमें रोष उत्पन्न हुआ। वह गांधी जी का सम्मान करते थे, पर उन्होंने हिंसात्मक क्रांति का मार्ग अपनाना उचित समझा। 

 उन्होंने जुलूसों में भाग लेना शुरू कर दिया और कई क्रांतिकारी दलों के सदस्य बन जाए।उनके क्रांतिकारी दल के प्रमुख सदस्य चंद्रशेखर आजाद, सुखदेव, राजगुरु,बिस्मिल इत्यादि थे।

 काकोरी कांड में 4 क्रांतिकारियों  को फांसी की सजा व 16 अन्य को कारावास की सजा हुई तो भगत सिंह बहुत विचलित हुए और उन्होंने 1928 में अपनी पार्टी "नौजवान भारत सभा" का "हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन" में विलय कर दिया और उसको एक नया नाम "हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन" दिया।

1928 में लाहौर में साइमन कमीशन के खिलाफ जुलूस के दौरान ब्रिटिश अधिकारियों के लाठीचार्ज में लाला लाजपत राय की मौत हो गई। पंजाब में लाला जी का खासा प्रभाव था। उनकी मौत ने भगत सिंह को झकझोर दिया।

17 दिसंबर 1928 को करीब सवा चार बजे, ए० एस० पी० सॉण्डर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधी उसके सर में मारी जिसके तुरन्त बाद वह होश खो बैठे। इसके बाद भगत सिंह ने 3-4 गोली दाग कर उसके मरने का पूरा इन्तज़ाम कर दिया। ये दोनों जैसे ही भाग रहे थे कि एक सिपाही चनन सिंह ने इनका पीछा करना शुरू कर दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया - "आगे बढ़े तो गोली मार दूँगा।" नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी।

 इस तरह  उन्होंने साथियों शिवराम राजगुरु, सुखदेव ठाकुर और चंद्रशेखर आजाद के साथ मिलकर लाठीचार्ज का आदेश देने वाले जेपी सांडर्स को गोली मारी। लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया।

फिर, ट्रेड डिस्प्यूट कानून के खिलाफ विरोध दर्शाने के लिए सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में ऐसे स्थान पर बम फेंका, जहां कोई नहीं था। 7 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह को उनके साथियों के साथ सजा सुनाई गई। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी पर चढ़ाया गया।

भगत सिंह को हिन्दी, उर्दू, पंजाबी तथा अंग्रेजी के अलावा बंगाली भाषा भी आती थी जो उन्होंने  बटुकेश्वर से सीखी थी। उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता  उद्वेलित हो जायेगी और ऐसा उनके जिन्दा रहने से शायद ही हो पाये। इसी कारण उन्होंने मौत की सजा सुनाने के बाद भी माफ़ीनामा लिखने से साफ मना कर दिया था।

“किसी ने सच ही कहा है, सुधार बूढ़े आदमी नहीं कर सकते । वे तो बहुत ही बुद्धिमान और समझदार होते हैं। सुधार तो होते हैं युवकों के परिश्रम, साहस, बलिदान और निष्ठा से, जिनको भयभीत होना आता ही नहीं और जो विचार कम और अनुभव अधिक करते हैं ।”~ भगत सिंह

 यह कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि जिस हुकूमत का दुनिया के एक बड़े हिस्से में शासन था। जिसके बारे में कहा जाता था कि उनके शासन में सूर्य अस्त नहीं होता। इतनी बड़ी ताकत, एक 23 साल की युवक से भयभीत हो गई थी।

उनकी शहादत को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ऊपर जीत के रूप में देखा गया था।आज भी भारत और पाकिस्तान की जनता भगत सिंह को आज़ादी के दीवाने के रूप में देखती है जिसने अपनी जवानी सहित सारी जिन्दगी देश के लिये समर्पित कर दी।

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