जब शनि भगवान को न्यायाधिकारी का पद मिला

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प्रारब्ध अध्यात्म डेस्क,लखनऊ


 भगवान विष्णु, शंकर और ब्रह्मा जी के मध्य, संसार में एक न्याय अधिकारी बनाने का संवाद हुआ। यह संवाद तब शुरू हुआ जब देवों और असुरों के बीच लगातार युद्ध हो रहा था। असुरों को लगता था कि जब न्याय की बारी आती है तो फैसला देवों के हक में सुनाया जाता है परंतु असुरों के गुरु शुक्राचार्य को भगवान शंकर पर पूर्ण विश्वास था कि वे देवों के साथ असुरों के हितों की भी रक्षा करेंगे।


भगवान शंकर ने अपने परम भक्त शुक्राचार्य को कभी निराश भी नहीं किया। भगवान शंकर ही थे जिन्होंने शनिदेव के जन्म की पटकथा लिखी। शनिदेव का जन्म सूर्यपुत्र के रूप में हुआ। जिनकी मां का नाम छाया था. एक पौराणिक कथा के अनुसार छाया ने शनि को एक जंगल में छुपा के रखकर उनका पालन पोषण किया। यम के अलावा शनि भी सूर्य के एक पुत्र हैं। शनिदेव को भी नहीं मालूम था कि वह सूर्यपुत्र है।

 
यह राज बहुत दिनों तक छुप नहीं नहीं सका, क्योंकि संसार को उसका न्याय अधिकारी जो कर्मों के आधार पर लोगों को न्याय और दंड देगा। इधर देवाधिपति इंद्रदेव और शुक्राचार्य के बीच न्याय अधिकारी को जानने के लिए उत्सुकता थी। इसी का नतीजा चक्रवात के रूप में आया जिसका संचालन शुक्राचार्य कर रहे थे। 


वास्तव में गुरू शुक्राचार्य को मोहरा बनाते हुए इंद्रदेव ने एक षड्यंत्र रचा था। इस चक्रवात के लिए इंद्रदेव जिम्मेदार थे जिन्होंने असुरों के गुरु शुक्राचार्य को उकसाया। इस चक्रवात की चपेट में शनि की माता छाया आ गईं, जिससे शनिदेव नाराज हो गए और शंकर भगवान की कृपा से उन्हें अपनी शक्तियों का बोध हो गया और उन्होंने अपनी मां छाया को बचा लिया।


इसके बाद सूर्य देव इस चक्रवात से क्रोधित हो गए। उन्होंने शुक्राचार्य और इंद्र देव को सूर्य लोक बुलाया, जहां पर चक्रवात के दोषी को दंड देकर न्याय दिया जाना था लेकिन शुक्राचार्य की बात सुने बिना उनको दोषी करार दे दिया। इसको देखते हुए शनिदेव प्रकट हो गए और उन्होंने उचित न्याय किया।


शनि भगवान ने सभी को बताया कि चक्रवात के असली दोषी शुक्राचार्य नहीं इंद्रदेव हैं। शनिदेव की यह बातें सुनकर वहाँ उपस्थित सभी देवता( पिता सूर्य देव ) चकित रह गए। शनिदेव ने कहा कि न्याय सबके लिए बराबर होता है चाहे वह देव हो या असुर। अंत में देवताओं को शनिदेव के आगे झुकना ही पड़ा क्योंकि न्याय विश्व के न्याय अधिकारी द्वारा दिया जा रहा था। इंद्रदेव को सजा के तौर पर अपना मुकुट उतारकर धरती पर करना पड़ा।

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