* प्यास*

सवेरे से जाने कितनी बार।
देख चुका हूं
अपनी कच्ची कोठरी के बाहर झांककर।
बादलों को ।
कल मौसम विभाग की भविष्यवाणी के 
सच होने की आशा में।
मैंने देखी है फसलों के अधरों पर मचलती प्यास
देखा है मुरझाए आधे पीले पत्तों को
जैसे रूठ जाना चाहते हों ।
सूखे होठों से
 प्यासे  धानों ने।
मेरे कानों में कही है अपनी प्यास की बात
यह खेत खलिहान अपनी ज़ुरूरत 
चुपके से क्यों कहते है। 
शोर क्यों नही मचाते।
हमारी तरह।
धरती का सीना चीर कर 
क्यों नही निकल आती बाहर 
इनकी प्यास। 
कितना धैर्य है इनमें 
आहत हैं 
पर आह नही करते।
सब्र और सब्र तृष्णा को ।
कम कर देता है। 
कव्वे की तरह नल की टोंटी से टपकी बूंद तो इनकी ज़ुरूरत नही।
इनको चाहिए टूटता मेघ।
यह भीगना नही चाहते 
डूबना चाहते हैं।
आओ बादलो और टूट पड़ो ।
बुझा  दो इनकी प्यास। 
इनको भी जीवन बांटना है धरती पर।
इनको भी निकलना है लम्बी यात्रा पर।
गरीब की झोंपड़ी से लेकर अमीरों के किचन तक।
  सस्ते गल्ले की दुकानों से मिड डे मील की थाली तक।
चलाये जा रहे लंगरों तक।
सीमा पर तैनात सिपाही तक
होटलों और संसद की रसोई तक जाना है इन्हें
ताकि दे सकें लोगों को जीवन।

इनको भी जीवन मिले तो बांटें यह भी जीवन।
                                                 -अय्यूब खां

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