मेरी शादी तो बहुत पहले हो गई थी, अब तो नई डेट तलाश रही...

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 ब्रह्मपुत्र के पार, बादलों के बीच में : चार

  •  अजय शुक्ल

        

जिन लोगों ने बादलों के बीच सांस ली है वे जानते हैं कि बादल कुहासा जैसे होते हैं। बादल, सांस के ज़रिए वे आपके शरीर में घुस जाता है। सांस छोड़ने पर उच्छवास बादल का हिस्सा हो जाती है। उसे पकड़ नहीं सकते। मुट्ठी में पकड़ो तो हथेली नम भर हो जाती है। बस। 

यही बादल मेरे कमरे में घुस आया था। शिलॉन्ग के लिए यह सामान्य बात है। बारिश के दिनों में लोग खिड़कियां बन्द ही रखते हैं ताकि कोई चिलबिस्सा बादल अंदर रखा सामान न गीला कर दे।

बादल ठंडा होता है.... कितना? नशे में ग़ाफ़िल दिमाग़ ने खुद से पूछा। और, ख़ौफ़ज़दा दिमाग़ ने जवाब दिया–लाश जितना ठंडा। मेरी नज़र मेज़ पर रखी बोतल पर चली गई। अब भी तली में सौ-डेढ़ सौ एमएल दारू पड़ी थी। मैंने बोतल उठा ली लेकिन हाथ उसे सम्हाल न सका। वह छूट गई। उठाने की कोशिश में कुर्सी से झुका तो कुर्सी समेत भरभरा कर फर्श पर फैल गया। उठने की कोशिश में दो बार गिरा। पता नहीं दारू का नशा था या डर–मुझे लग रहा था कि उठते ही मेरा दोस्त यानी भंडारी मुझको बियर-हग में जकड़ लेगा। 

लेकिन तभी मुझे लैवेंडर की महक फिर महसूस होने लगी और ऐसे खड़ा हो गया मानों मेरे घुटनों में स्प्रिंग फिट हों। पर मुझे दीवार का सहारा लेना पड़ा। मुझे ठंड लग रही थी। मैंने मुश्किल से खिड़की बन्द की और बेड पर आ गिरा। मैंने सर तक रज़ाई तान ली। मगर मेरी कंपकपी बन्द न हुई। मैंने फायरप्लेस में लकड़ियां देखी थीं। सोचा जलवा लूं। मैं उठने लगा पर उठ न सका। मुझे लगा कि कोई रज़ाई के ऊपर हाथ रखकर मुझे मना कर रहा है। मैंने डरकर रज़ाई के सिरे कसकर भींच लिए।

सहसा मुझे कानों में कुछ आवाज़ आती महसूस हुई.....सुनील...मेरे यार...।

शायद मैंने औकात से ज़्यादा दारू पी ली थी...मैं सोच रहा था....शायद मेरे कान बज रहे हैं...शायद मैं हेल्युसिनेट कर रहा हूं...शायद भंडारी मर चुका है और उसका भूत कमरे में घुस आया है...शायद..शायद।

"तू डर मत, तू तो मुझे ही खोजता यहां आया है न!? लो, में खुद तेरे पास आ गया।" मुझे फिर आवाज़ सुनाई दे रही थी।

"तू कौन है, भंडारी है?" मैंने खुद को रज़ाई में दफ़न करने की कोशिश करते हुए सवाल पूछा। पर यह क्या? मेरे मुंह से सवाल नहीं बस गों-गों की आवाज़ निकल रही थी।

"सुनील मैं भंडारी ही हूं, नाहर। तेरा नैरी। बोलने की कोशिश मत कर। मैंने तेरी आवाज़ बांध रखी है। क्योंकि मुझे अपनी कहानी सुननी है। अगर तेरी ज़बान पर लगाम न लगाऊंगा तो मुझे टोकता ही रहेगा। तू कितना बातूनी है, मैं बचपन से जानता हूं..."

मैं सुन रहा था। आवाज़ भंडारी की ही थी। मैं सुनने के अलावा कुछ और करने में समर्थ भी न था। न उठने की ताकत थी न हिम्मत। आवाज़ मेरे कानों में आती रही।

"...और सुनील, आग नहीं जलवाना। मैं तो बादल बन कर तेरे पास आया हूं। आग में बादल नष्ट हो जाते हैं। मैं नष्ट हुआ तो मेरी आपबीती कौन सुनेगा।"

मैंने फिर जवाब देने की कोशिश की। मगर गले से गों-गों की आवाज़ ही निकली। मेरे कान फिर उसकी आवाज़ सुनने लगे...

"अब तू सुअर की तरह गों-गों करना बंद कर और मेरी कहानी सुन। ठीक? हां तो मैं फरवरी एंड में अपने घर नरेंद्र नगर गया था। चार मार्च को वापस चला। पांच मार्च को मैंने चारबाग से जीएल एक्सप्रेस पकड़ी। जीएल सात तारीख को पांच घण्टे लेट रात आठ बजे गौहाटी पहुंची। तब तक शिलॉन्ग के लिए आखिरी टैक्सी जा चुकी थी।

"अगले दिन नाश्ता करके मैं शिलॉन्ग की टैक्सी पकड़ने को चल दिया। मैं टैक्सी स्टैंड जाने के लिए सड़क पार कर रहा था कि एक युवती सामने से दौड़ते हुए आई और मुझसे टकरा गई। वह कत्थई स्कर्ट और आसमानी ब्लाउज़ पहने थी। वह आयम सॉरी कहकर चल दी। उसके बाल भूरे थे। मुझे टैक्सी पकड़ने की ज़ल्दी थी। मैं आगे बढ़ गया। तभी मेरे नथुनों में पता नहीं कहां से लैवेंडर की खुशबू भरने लगी। पता नहीं क्यों मेरे मन में लड़की को फिर देखने की इच्छा जग गई। मैं पलटा और देखा–लड़की थोड़ी दूर जाकर खड़ी हो गई थी और मुझे ही देख रही थी।

"इस बीच एक अधेड़ सरदार जी ने टैक्सी लाकर मेरे आगे खड़ी कर दी।...साहब शिलॉन्ग? भावताव के बाद मैं टैक्सी में बैठ गया। सरदार जी बोले: आप बैठो, मैं टैक्सी स्टैंड का टैक्स देकर आता हूं। दो मिनट में वे लौट आए। गाड़ी स्टार्ट की और मेरी तरफ घूमे–सर एक लड़की लिफ्ट मांग रही थी। लोकल है। मैंने कहा कि साहब से पूछ कर बताता हूं।

"मैंने मना कर दिया। क्या पता कि कोई इंसर्जेंट हो–नगा या मिज़ो। तिस पर मैं था फ़ौज़ी अफसर। टेररिस्ट का टारगेट ...सरदार जी ने पहला गियर डाल दिया। अचानक मेरी नज़र फिर पीछे चली गई। टकराने वाली लड़की मुझे ही देख रही थी। लैवेंडर की महक फिर मेरे नथुनों में बसती जा रही थी।

थोड़ी ही देर में टैक्सी दिसपुर पारकर पहाड़ी रास्ते मे चढ़ने लगी। मैं ठंडी हवा और दिलकश नज़ारों का स्वाद लेने लगा। क़रीब डेढ़ घंटे बाद नोंगपोह आ गया। नोंगपोह यानी मुसाफिरों के लिए नाश्ते-पानी का बढ़िया अड्डा। सरदार जी ने गाड़ी रोक दी। कुछ खाने-पीने के बाद टैक्सी वापस शिलॉन्ग के रास्ते पर दौड़ने लगी। पर तभी आ गई घनघोर बारिश और सरदार जी की गाड़ी के वाइपर भी फेल हो गए। गाड़ी सड़क किनारे खड़ी करनी पड़ी। कुछ देर बाद बारिश धीमी हुई तो सरदार जी लघुशंका का इशारा करके बाहर चले गए।

"तभी मुझे ठक-ठक की आवाज़ सुनाई दी। सर घुमाकर देखा तो खिड़की के पीछे एक युवती खड़ी थी।  शुभ्र-धवल गाउन और हाथ मे छाता। काला। उसने एक बार फिर उलटी उंगलियों से खिड़की के शीशे पर ठक-ठक की।

"मैंने दरवाज़ा खोल दिया। वह अंदर आ गई। सुर्ख लिपस्टिक। बेहद सुंदर। और बेहद परेशान। मैंने उसे सहज करने के लिए पूछा–इस जंगल में यह पोशाक? शादी करके आ रही हो या करने जा रही हो..। बात सुनकर वह मुस्कराई। बोली: मेरी शादी तो बहुत पहले हो गई थी। अब तो नई डेट तलाश रही हूं।

"मैं हंस पड़ा। मैट्रीआर्कल समाज की खासी लड़की के लिए इस तरह हंसना-बोलना कोई बड़ी बात नहीं। वे सशक्त होती हैं। मर्दों के कदमों के पीछे-पीछे चलने वाली तो बिल्कुल नहीं।

"सरदार जी आ गए थे। पानी रुक गया था। उन्होंने गाड़ी आगे बढ़ा दी। मैं लड़की से बतियाने लगा। मैंने जब उसे बताया कि मैं फौज़ में एनजीनियर हूं तो वह बोली–मेरा हबी भी फौज़ में था। इन्फैंट्री में। मारा गया।

"यह सुनकर मैंने रोनी सूरत बना ली। वह देखकर हंसने लगी। बोली, डोंट फील सैड ऑर सॉरी। ही वज़ पास्ट। तभी सरदार जी मोड़ का अंदाज़ लगाने में चूक गए और बचाव में उन्हें बहुत तीखा टर्न लेना पड़ा। उधर टैक्सी मुड़ी और इधर वह सुंदर लड़की मेरे ऊपर पसर गई...और पसरी पड़ी रही। मोड़ खत्म हो गया। गाड़ी सीधी सपाट सड़क पर दौड़ने लगी। पर वह वैसे ही पड़ी रही।

"मैंने उसे हाथ से परे करने की कोशिश की। वह एक आंख खोलकर कुनमुनाई: हे गाय, एम आय हर्टिंग यू?...डोंट बी अ स्पोइल स्पोर्ट...आय जस्ट वान्ना लव..लव ..एंड मेक लव। कम शो सम शिवेलरी। रेस्पेक्ट अ लेडी...हर विशेज़।

"अंधा क्या चाहे–दो आंखें। और, कुंवारा अंधा क्या चाहे? मैंने अपनी दोनों आंखें बंद कर लीं और उस युवती की प्रॉपर्टी बन गया।

"टैक्सी शिलॉन्ग के गाड़ीखाना इलाके में खड़ी हो चुकी थी। सरदार जी ज़ोरज़ोर से शोर मचा रहे थे: उतरिए साहब, शिलॉन्ग आ गया। वह लड़की कहां चली गई? मैं परेशान था।

"मैं टैक्सी से उतर गया। सरदार जी को भाड़ा दिया और उनके कान में खुसफुसा कर पूछा: वो कुड़ी कित्थे चली गई? सरदार जी कुछ देर मुझे घूरते रहे। फिर बोले: आप कुछ नशा करते हो क्या? नोंगपोह के बाद पता नहीं क्या हुआ कि आप लगातार खुद से बातें करते रहे। फिर आप सीट पर लेट गए और सीट को चूमने-चाटने लगे। कुछ देर और आप उह-आह करते रहे। फिर सो गए।

"मैं सरदार जी को क्या जवाब देता। मैंने झुक कर अपनी अटैची उठाई तो मेरी नज़र अपनी शर्ट की जेब पर चली गई। वहां लाल सुर्ख लिपस्टिक के तीन गहरे दाग मौजूद थे। मैंने गहरी सांस ली। मेरे कपड़ों से लैवेंडर की खुशबू आ रही थी। मेरे ऑफिस की जीप मुझे लेने आई थी। मैं मुस्करा कर उस पर बैठ गया। मैं मूर्खों की तरह सोच रहा था और मूर्खों की तरह कुछ समझ नहीं पा रहा था।

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(वह लड़की फिर मिली नाहर भंडारी से: पढ़ें कल)

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