और तैश में नेताजी मुझे बाबर की औलाद...

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कानपुर : 31 अक्टूबर 1984

1992 के दंगे की कहानी 'जय श्रीराम' पढ़कर एक मित्र ने चुनौती दी कि क्या मैं 1984 के नरसंहार पर भी कहानी लिख सकता हूं। ''बिलकुल, चैलेंज स्वीकार है,'' मैंने कहा, "1984 में भीड़ ने मुझे मोना सरदार कह कर दौड़ाया था और 6 दिसंबर 1992 से कुछ दिन पहले एक बहस में एक नेता जी ने तैश में आकर मुझे बाबर की औलाद कह डाला था...एक नागनाथ, दूसरा सांपनाथ"                  - अजय शुक्ल की कलम से।

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तो, चलें 1984, तारीख 31 अक्टूबर। दिन मंगलवार। स्थान : मॉल रोड, कानपुर। समय : शाम साढ़े तीन बजे।

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नून शो छूटने पर अप्सरा, सुंदर, रॉक्सी, रीगल और हीर पैलेस से फ़िल्म देखकर निकले दर्शकों के हुजूम में किसी को भी न पता था कि कानपुर नरसंहार की तैयारी में जुटा हुआ है। प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी को उनके सुरक्षा गार्ड मार चुके थे। मौत की सरकारी घोषणा अभी नहीं हुई थी लेकिन खबर सबके पास पहुंच चुकी थी। सतवंत और बेअंत के नाम तो अभी न खुले थे पर यह बात फैल चुकी थी कि क़त्ल 'सरदारों' ने किया है–इन्दिरा के बॉडीगार्डों ने।

शहर के बाजार दोपहर से ही बन्द होने शुरू हो गए थे। अच्छे बच्चे घर पहुंच चुके थे। बुरे बच्चे लाठी, हॉकी और सब्बल आदि लेकर सिक्खों को तलाश रहे थे। बुरे बच्चों के ये हुजूम मॉल रोड में भी घूम रहे थे। अचानक पांच-पांच सिनेमा हॉल छूटे तो इन लिंचरों के भाग्य जाग गए। विडम्बना यह कि इनके भावी शिकारों को भान तक नहीं कि उन्हें। भीड़ में कितने सिक्ख थे? यह चिंता आप न करें। यह भी न सोचें कि उनके साथ क्या हुआ।

यह एक आदमी की कहानी है, जिसका नाम...चलिए अमरीक रख लेते हैं।

छह फीट को छूता गोरी रंगत और भूरी आंखों वाला यह सिक्ख युवक जैसे ही हीर पैलेस से बाहर निकला तो सड़क पार रियो रेस्टोरेंट के बाहर लाठी-डंडों से लैस एक भीड़ नारेबाज़ी कर रही थी। उसने कान लगाए। नारा था: खून का बदला खून से लेंगे। "की होइया", अमरीक ने बराबर से चल रहे एक अन्य सिक्ख युवक से पूछा। "मैनू की पता" युवक इतना कहकर आगे बढ़ने लगा। तभी सामने से आ रही आवाज़ों ने उसे रोक दिया...अबे देख दो-दो सरदार। अमरीक के पांव भी ठिठक गए। उसने अपने और अन्य सिक्खों के लिए हमेशा सरदार जी का सम्बोधन सुना था। उसे अपमान महसूस हुआ। "क्या बात है भाई...क्या हुआ है?" उसने सड़क के उस पार खड़े हुजूम से तेज़ आवाज़ में पूछा। उसकी आवाज़ में डर कहीं न था। डरता तो तब जब उसे खबर पता होती। फिर वह अपने घर में था। कानपुर की पैदाइश थी। वहीं मॉल रोड स्थित एलपी इंटर कालेज से उसने 12वीं तक की पढ़ाई की थी। चप्पे-चप्पे से वाकिफ़ था।

तभी एक अद्धा ईंट उसके पैरों पर आकर लगी। वह पैर सहलाने लगा कि उसे "मार सरदार को" का हांका सुनाई दिया अमरीक ने आंख उठाकर देखा– भीड़ उसी की तरफ बढ़ रही थी। सहसा उसे महसूस हुआ कि वह अकेला है। उसने नज़र दौड़ाई। दर्शक तितर-बितर हो चुके थे। पास में दूसरा सिक्ख युवक ज़रूर खड़ा था। कांपता हुआ। अमरीक के अंदर शिकारी के सामने होने पर शिकार के अंदर उपजने वाला आदिम भय जग चुका था। ''भाग सरदारे भाग" वह चीखा और दौड़ पड़ा। वह नरोना एक्सचेंज के बगल से एलपी इंटर कॉलेज की तरफ भागा और दूसरा सिक्ख युवक घसियारी मंडी की तरफ। पर वह कैनाल रोड पहुंचने के पहले ही सड़क पर गिर गया। अमरीक ने भागते-भागते देखा: भीड़ युवक को लाठियों से पीट रही है।

file photo

उसका क्या होगा? अमरीक के पास यह चिंता करने का वक़्त नहीं था क्योंकि भीड़ का दूसरा टुकड़ा उसी की तरफ भागता आ रहा था। वह पूरी ताकत से दौड़ा लेकिन शिकारियों का फेंका गुल्ली-डंडे वाला डेढ़-दो फीट का डंडा उसके पांवों में इस तरह आ फंसा कि वह मुंहभरा गिरा।

अमरीक के पास अब ज़्यादा विकल्प नहीं थे। उस पर लाठी बजनी शुरू हो गई थी। उसने अपना आयतन कर लिया और खुद को गर्भस्थ शिशु की मुद्रा में सिकोड़ लिया। लातें रिबकेज के नीचे मारी जा रही थीं और लाठी सर पर। सर पर पगड़ी थी। "पहले इसकी पगड़ी नोच तभी तो सर फटेगा सरदार का" अमरीक ने सुना और अपनी 'पाग' ज़ोर से पकड़ ली। पर कोई फायदा नहीं। लिंचरों ने उसे कॉलर पकड़ कर खड़ा किया। कोई भारी चीज़ माथे पर दे मारी और कई हाथों ने मिलकर पगड़ी नोच दी। "अब दे लाठी इसके खोपड़े पर" अमरीक ने सुना। उसने आंखे बंद कर रखीं थीं। वह लड़ नहीं रह था। वह सिर्फ एक काम कर रहा था। वह वाहे गुरु का जाप कर रहा था। तभी उसके सर पर लाठी पड़ी। उसे लगा कि वह बेहोश हो जाएगा। लेकिन उसी क्षण उसके कानों ने जो सुना तो दिमाग़ को बेहोशी का कार्यक्रम पोस्टपोन करना पड़ा।

"ये लो, मैं चापड़ ले आया..अब लाठी रखो...बस एकइ झटका मा उद्धार.."

अमरीक ने आंखें खोल दीं। एक लिंचर ने चापड़ थाम रखा था। उसने अमरीक के बाल पकड़ लिए और एक अन्य आदमी ने पूरा जोर लगाकर गर्दन झुक दी। अमरीक

के शरीर में मानो हाथी जितना बल आ गया और जैसे ही चापड़ चला उसने झटका देकर खुद को बचा लिया। चापड़ गर्दन की जगह केश पर पड़ा। अमरीक फिर भाग पड़ा।


(अपने परिवार को न बचा पाया अमरीक: पढ़ें कल)

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