"बाबा, रुकिए तो..कुछ और बताइए अपने बारे में...

0
पंडित मुंशी रहमान ख़ाँ रामायणी
Pandit Munshi Khan Ramayni

संपादक : अजय शुक्ल।
दस्तक हुई तो दरवाज़ा खोला। सामने एक बुज़ुर्गवार खड़े थे। बेहद बूढ़े। उनकी खसख़सी दाढ़ी और कपड़े-लत्तों से मैं इतना ही जान पाया कि वे मुसलमान हैं। मैं चौखट से हटा नहीं। कोरोना काल में एक अपरिचित का स्वागत करने के लिए मेरा मन तैयार नहीं हो पा रहा था।
"जी। बताएं.." मैंने नज़रों से ज़मीन कुरेदते हुए कहा।
"राम-राम बेटा" उसने जवाब दिया। मैंने उसकी तरफ देखा। बूढ़े के चेहरे पर मुस्कान खेल रही थी।
"जी, अंकल" मैं अब भी बूढ़े को भीतर आने की दावत नहीं दे पा रहा था, "जी, आपको पहचाना नहीं!"
"मैं रामभक्त..पंडित..मुंशी रहमान ख़ाँ, रामायणी..निवासी..." उन्हें खांसी आ गई। बात पूरी नहीं कर पाए। सांस थमी तो बोले, "थोड़ा-सा पानी मिल जाएगा क्या?"
मेरे पास डिस्पोज़बल बरतन थे। "आइए, अंदर आ जाइए खान साहब" मेरी इंसानियत जागने लगी थी। बूढ़े को सोफे में बिठाकर मैं प्लास्टिक के गिलास में पानी ले आया। गिलास को हाथ में पकड़ कर बूढ़ा फिर मुस्कराया और बोला, "अब मिट्टी के बरतन नहीं बनते क्या?"
"अंकल, बनते तो हैं मगर बस पूजा-पाठ के लिए...भगवान के लिए" मैंने जवाब दिया और सवाल भी दाग दिया, "बताइए, क्या ख़िदमत करूँ...कैसे आना हुआ...मैं तो आपको पहचान भी नहीं पा रहा..?"
"कोई सेवा नहीं चाहिए, बेटा।  तुम्हारा पुरखा हूं। पुरखों को जल देते हैं न? तुमने पानी दे दिया..समझ लो तुमने तर्पण कर दिया। मैं तृप्त हुआ...।" इतना कहकर बूढ़ा उठने लगा। उसने मुझे देखा। आंखों में प्रेम और करुणा का सागर लहरा रहा था। उसकी चितवन ने सहसा मुझे मेसमराइज़ कर दिया। एक अबूझ सी चमक थी उसकी बूढ़ी आंखों में।  मैं खुद को ट्रांस की स्थिति में पा रहा था। 
"बाबा, रुकिए तो..कुछ और बताइए अपने बारे में..." मैंने कहा और उसकी जर्जर कलाई थाम ली। कलाई ठंडी थी।
"बताया तो मेरा नाम रहमान ख़ाँ है" बूढ़ा वापस सोफे में बैठ गया। बोला, "सूरीनाम जानते हो? त्रिनिदाद, टोबैगो के पास एक छोटा-सा देश सूरीनाम.. अरे, वही वेस्टइंडीज वाला इलाक़ा...। वहीं है मेरा घर। वैसे पुश्तैनी घर भरखरी गांव, थाना बिंवार, ज़िला हमीरपुर में है।"
"अभी कहां से आना हो रहा है बाबा और..।" मैं बात पूरी करता, उससे पहले वह जवाब देने लगा, "कहां से आ रहा हूं, यह बेमानी है। बड़ी बात यह है कि कहां जा रहा हूं। तो सुनो–मैं अजुध्या जी जा रहा हूं। पता चला कि पांच तारीख को रामलला का मंदिर बनना शुरू होगा तो मैं खुद को रोक न पाया...क्यों? रामकाज में रामभक्त रहमान का होना तो लाज़िमी है न–क्यों?"
पंडित मुंशी रहमान ख़ाँ रामायणी की फाइल फोटो
"और वह सूरीनाम का क्या चक्कर है?" मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।
"सूरीनाम?" बूढ़े को भी बातचीत में मज़ा आने लगा था, "सूरीनाम मेरी कर्मभूमि है। गिरमिटिया मज़दूर बनकर गया था वहां। गोरों के गन्ने के खेतों पर काम करता था। बड़े कष्ट का जीवन था। काम खत्म करने के बाद शाम को सभी मज़दूरों के बीच मैं तुलसी बाबा की रामायण का पाठ करता था। कभी मन करता तो महाभारत और सुखसागर के किस्से भी सुनाता था। सब मुझे पंडित जी कहते थे। हिंदुस्तान में मैं मुंशी जी यानी टीचर था। वहां पंडित जी बन गया।"
मैं सन्नाटा खींच कर सुने जा रहा था। धुकधुकी बढ़ती जा रही थी। बुड्ढा गिरमिटिया था–यह जानने के बाद दिमाग़ उसकी उम्र का अंदाज़ लगाने में जुटा पड़ा था लेकिन  ख़ौफ़ मुझ पर इस क़दर तारी था कि सिंपल हिसाब नहीं कर पा रहा था।
मझे अपने अंदर से 'जय हनुमान ज्ञान गुन सागर' के बोल सुनाई दे रहे थे। उन्हीं स्वरों से ताक़त इकट्ठी कर मैंने बूढ़े से पूछा, "ब्ब्ब्ब्ब्बब्ब बाबा आप हैं कौन?"
"भूत..." बुड्ढे ने कहा और ठहाका मार कर हंसने लगा। कुछ पल रुकने के बाद उसने कहा, "मैं हिंदुस्तान हूं–बीता हुआ। तो भूत ही तो हुआ...हाहाहा-हाहाहा...वह हिंदुस्तान जिसमें पांच वक़्त का नमाज़ी रामायणी भी होता था!"
भूत शब्द सुनने के बाद मैं भय से कांपने लगा। तो भी 'महावीर जब नाम सुनावैं' कहते हुए मैंने एक बार फिर हिम्मत जुटा कर पूछ डाला, "बाबा, आप कब पैदा हुए थे?"
"बताऊंगा...बताऊंगा" बूढ़ा बोला, "लेकिन पहले एक गिलास पानी और।"
मैं दौड़ कर पानी ले आया। बूढ़े ने एक घूंट पानी पिया और बोला, "तो सुनो, मैं गांधी बाबा से पांच साल छोटा हूं और पंडित जी से पांच साल बड़ा...हाहाहा-हाहाहा..।"
इतना कह कर बूढ़े ने बचा हुआ मेरे सर पर डाल दिया। मैंने सर झटक कर आंख खोली तो बूढ़ा गायब था। उसकी जगह पत्नी का चेहरा अपने ऊपर झुका दिखा। उनके हाथ में पानी से भरा लोटा था। वे झल्ला रही थीं, "अब उठो भी नौ बज़ रहे हैं। आज सावन का सोमवार है। जाओ, शिव जी का जलाभिषेक कर आओ।"

नहाने-धोने के बाद मैं जलपात्र लेकर मंदिर चला गया। मंदिर में जलाभिषेक, पंचाक्षर मन्त्र जाप, रुद्राष्टक और शिव तांडव स्तोत्र का पाठ तो मैं करता रहा, लेकिन दिमाग़ के कोने में मुंशी रहमान ख़ाँ का सपना भी चलता रहा। सो, घर आते ही फलाहार के साथ ही मैंने गूगल से रहमान ख़ाँ के बारे में पूछताछ की तो उसने एआर रहमान और फ़िल्म कलाकार रहमान आदि का ब्यौरा पेश कर दिया। मैंने गूगल से एक बार और रिक्वेस्ट की। इस बार नाम के साथ मुंशी और सूरीनाम भी जोड़ दिया और मुझे गिरमिटियों  का रामायणी मिल गया। पहले लेख में ही उन बातों की तस्दीक़ हों गई जो सपने वाले बूढ़े ने बताई थीं: 
मुंशी रहमान ख़ाँ, वल्द मोहम्मद ख़ाँ, साकिन मौजा भरखरी, थाना बिंवार, ज़िला हमीरपुर, कमिश्नरी इलाहाबाद। पैदाइश सन् 1874, इंतकाल सन् 1972, स्थान पारामारिबो-सूरीनाम।
तो सपने में आया बूढ़ा वाक़ई भूत था! मर चुका था!! मगर यह भूत मेरे सपने में कैसे घुस आया? मेरे रेशनलिस्ट मन के लिए यह बहुत बड़ा सवाल था क्योंकि सपने निराधार नहीं होते। मैंने गूगलिंग जारी रखी और मुझे मुंशी जी की कुछ और बातें मालूम हुईं। इनमे से एक थी उनकी लिखी किताब 'जीवन प्रकाश'।  किताब के नाम से मुझे deja vu की अनुभूति होने लगी। ...यह किताब मेरे हाथ में आई थी...पर कहां? मैंने इसे पढ़ा भी नहीं था...पर क्यों नहीं पढ़ी? क्यों...क्यों...क्यों?
अन्ततः दिमाग़ ने यादों की गठरी खोल दी।  याद आ गया। जीवन प्रकाश टाइटल की पुस्तक मैंने कमलेश्वर जी की मेज़ पर देखी थी। तब वे दिल्ली में दैनिक जागरण के सम्पादक थे। मैं नौकरी मांगने उनके पास गया था। मैं जब कमरे में घुसा, कमलेश्वर जी मौजूद नहीं थे। मेज़ पर यही किताब पड़ी थी। मैंने इसे उठाया भर था कि कमलेश्वर जी आ गए थे। मैंने हड़बड़ा कर किताब मेज़ पर वापस रख दी थी। कमलेश्वर जी ने तब मुझे उस किताब और मुंशी रहमान ख़ाँ के बारे में संक्षेप में बताया था और कहा था–कभी मौक़ा मिले तो ज़रूर पढ़ना। गंगो-जमुनी तहज़ीब की ज़िंदा मिसाल है यह क़िताब।
तो, सपने के पीछे यह बात थी। मैं कमलेश्वर के दो मिनट के लेक्चर को भूल गया लेकिन दिमाग़ ने उसे किसी कोने में चुपचाप सहेज दिया। और, अभी जब पांच अगस्त का ट्रिगर मिला तो उसने सपना बना कर पेश कर दिया। सिंपल।
मैंने दिनभर नेट खंगाला कि मुंशी जी की आत्मकथा यानी 'जीवन प्रकाश' मिल जाए पर देवनागरी में लिखी यह कीमती पुस्तक कहीं उपलब्ध नहीं। किताब का अंग्रेज़ी और डच समेत कई यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है मगर अंग्रेज़ी पुस्तक The Autobiography of an Indentured Indian Labourer भी आउट ऑफ प्रिंट है। लेकिन पुस्तक की समीक्षाएं उपलब्ध हैं। यह रिपोर्ट उन्हीं पर आधारित है।
मुंशी जी की आत्मकथा कविताओं से सजी है। शायद किताब की शुरुआत उन्होंने मंगलाचरण से की हो। उनकी एक कविता इष्ट वंदना देख कर यही प्रतीत होता है:
गुरु पद पंकज नाय सिर उर धर ईश्‍वर ध्‍यान।
हाथ जोरि विनती करहुँ देहु बुद्धि बल ज्ञान।। 1
धर्म सहित पुस्‍तक रचहुँ सुनिए कृपानिधान।
तुव प्रसाद यह पूर्ण हो दीजौ यहि वरदान।। 2
धर्म विरुद्ध बहु कार्य लख, अस मन कीन्‍ह विचार।
देहुँ सीख दोउ धरम हित जो सहाय करतार।। 3
यासे मैं विनती करहुँ हे प्रभु करुणा नाथ।
जो अनुचित लेखनि लिखै शक्ति घटै मम हाथ।। 4
जो अक्षर भूलौं कहीं हे प्रभु दीनदयाल।
करि निज कृपा दीन पर शीघ्र करैयो ख्‍याल।। 5
जौन लिखौं सब होय फुर झूठ न आवै पास।
करियो ईश सहाय यहि पूजै मन की आस।। 6

थोड़ी बैसवाड़ी, बृज, बुंदेलखंडी और खड़ी बोली के बावजूद है न वही तुलसी बाबा की भाषा जिसमें उन्होंने मानस की रचना की थी! इन लाइनों को पढ़ कर शायद हर हिन्दू का मन गदगद हो जाएगा कि देखो तो एक मुसलमान हमारी प्रार्थना गा रहा है। ऐसा इसलिए कि जिन शब्दों से ईश्वर का गुणगान हो रहा है, वे आज हिंदी और नतीज़तन हिदुओं से जोड़ लिए गए हैं। पूरी प्रार्थना कहीं भी तौहीद के मुख़ालिफ़ नहीं है। दीनदयाला और कृपानिधान का कथित इस्लामीकरण करना हो तो बस इनको रहमान और रहीम में बदल दीजिए। बस!! 
तब का आदमी शायद ऐसा ही होता था। ज़रा तीसरा दोहा देखिए:
धर्म विरुद्ध बहु कार्य लख अस मन कीन्ह विचार।
देहुँ सीख दोउ धरम हित जो सहाय करतार।।
तो, मियां रहमान ख़ाँ धर्म विरुद्ध आचरण कर रहे दोनों धर्मों के लोगों को सीख देने का हौसला रखते हैं। आज कोई ऐसा करने की हिमाकत करे तो दोउ धर्म वाले मिलकर लिंच कर दें।
चलिए, आगे चलते हैं। मुंशी जी ने आत्म-परिचय आठ दोहों के माध्यम से देते हैं: 

कमिश्‍नरी इलाहाबाद में जिला हमीरपुर नाम।
बिवांर थाना है मेरा मुकाम भरखरी ग्राम।। 1
सिद्धि निद्धि वसु भूमि की वर्ष ईस्‍वी पाय।
मास शत्रु तिथि तेरहवीं-डच-गैयाना आया।। 2
गिरमिट काटी पाँच वर्ष की कोठि रुस्‍तुम लोस्‍त।
सर्दार रहेऊँ वहं बीस वर्ष लौ नीचे मनयर होर्स्‍त।। 3
अग्नि व्‍योम इक खंड भुइं वर्ष ईस्‍वी आय।
मास वर्ग तिथि तेरहवीं गिरमिट बीती भाय।। 4
खेत का नंबर चार है देइकफेल्‍त मम ग्राम।
सुरिनाम देश में वास है रहमानखान निज नाम।। 5
लेतरकेंदख स्‍वर्ण पद दीन्‍ह क्‍वीन युलियान।
अजरु अमर दंपति रहैं प्रेन्‍स देंय भगवान।। 6
स्‍वर्ण पदक दूजा दियो मिल सुन्‍नुतुल जमात।
यह बरकत है दान की की विद्या खैरात।। 7
इति वर्ग ग्रह सूर्य की है ईस्‍वी वर्ष।
मास भूमि तिथि रुद्र को पूरण कीन्‍ह सहर्ष।। 8

लेकिन बिंवार थाना क्षेत्र के भरखरी गांव स्थित अपने जिस जन्मस्थल से मुंशी जी इतना प्रेम करते थे, आज वहां उनको जानने वाला कोई नहीं। मुंशी जी का परिवार कहां चला गया, कुछ पता नहीं। और तो और, वहां एक भी मुस्लिम परिवार नहीं। मुसलमानों के रहने के निशान , मसलन कोई जर्जर मस्जिद या टूटी-फूटी कब्र भी नहीं।
यह जानकारी मेरे भतीजे कुलदीप शुक्ल ने दी, भरखरी से लौट कर दी। 
कोई निशानी तक नहीं–क्यों? क्या मालूम। बहरहाल, मुंशी जी अपने जन्मस्थान से बड़ा प्रेम करते थे। उन्होंने आत्मकथा का पहला हिस्सा गांव, अपने दोस्तों, तत्कालीन समाज और हिंदुस्तान को दिया है।
मुंशी जी बताते हैं कि वे पठान थे। पुरखे मध्यकाल में कभी अफ़ग़ानिस्तान से भारत आ गए थे और कालांतर में हमीरपुर आ बसे। उनके पिता मोहम्मद ख़ाँ ज़मींदार के मुख़्तार थे। साफ है कि खूब सम्पन्न थे। आखिर मुख़्तार बड़ी हनक वाली कुर्सी होती थी। मुंशी जी यह तो नहीं लिखते हैं कि उस वक़्त के समाज में वैमनस्य नहीं था, लेकिन उच्च वर्ग के हिन्दू-मुसलमान मिलजुल कर सौहार्द से रहते थे। आपस में खूब राब्ता था। वे बताते हैं कि स्कूल के हिन्दू शिक्षक उनसे बहुत प्रेम करते थे। यह कहते हुए वे यह चुहल भी कर डालते हैं कि हो सकता हो कि यह प्रेम पिता के कारण हो क्योंकि वे शिक्षकों के घर गल्ला-पानी की कमी न होने देते थे।
मुंशी जी अहीर दूधवाले, कायस्थ टीचर, चमार मज़दूर, क्षत्रिय राजा और भलेमानस मुस्लिम ज़मींदार की खूब चर्चा करते हैं। लेकिन इन तमाम जातीय शिनाख्तों के ज़िक्र के बावजूद इन सब के बीच संघर्ष नहीं था। वे किसी चेतराम मारवाड़ी का भी ज़िक्र करते हैं और बताते हैं कि जब उसका कुआं खुदा था तो तमाम धार्मिक अनुष्ठान हुए थे। लेकिन, तमाम यकजहती के बाद भी हिन्दू और मुसलमानों के बीच एक ईगो का मामला बना रहता था।  वे जलालपुर स्थित वली के मजार का ज़िक्र करते हैं। कहते हैं कि मज़ार की हालत जर्जर हो गई थी लेकिन अनेक अकीदतमंद हिंदुओं को मरम्मत नहीं करने दी गई थी।
मुंशी जी के पिता ने एक ज्योतिषी से कुंडली भी बनवाई थी। वे बताते हैं कि ज्योतिषी ने कहा था कि रहमान बहुत दूर तक जाएगा। बात सच निकली। वह बालक सूरीनाम चला गया।
घुमक्कड़ी उनके नक्षत्रों में थी। कानपुर उनकी पसंदीदा जगह थी। 12 अक्टूबर 1898 में  वे अंतिम बार कानपुर आए। मकसद था रामलीला और दशहरा मेला देखना। दशहरा 14 अक्टूबर को था। 
इसी मेले के दौरान 24 साल के युवक रहमान को दो आदमी मिले। ये आदमी उन गोरों के एजेंट थे जो दासों के खरीद-फरोख्त यानी स्लेव-ट्रेड का काम करते थे। दरअसल, यह वह समय था जब स्लेव ट्रेड पर रोक लग चुकी थी लेकिन वेस्ट इंडीज़, मॉरिशस आदि अनेक देशों में गोरे महाप्रभुओं को अब भी चीप लेबर की दरकार थी।
"24 रुपए मिलेंगे हर महीने" एजेंटों ने कहा। उस वक़्त यह बहुत बड़ी रकम थी। रहमान पढ़े-लिखे थे। खेत या खदान में काम करने का उन्हें कोई शौक नहीं था। "काम क्या है?" रहमान ने पूछा। एजेंट चतुर थे। तुरन्त बोले, "सरदारी।" सरदारी यानी मज़दूरों पर सुपरवाइज़री। 
सरदार का पद, 24 रुपए महीने की सैलरी और सबसे ऊपर सात समंदर पार की घुमक्कड़ी! मुंशी जी के लिए इतना बहुत था। 
"दस दिन बाद पानी का जहाज़ रवाना होगा" एजेंट ने कहा, "फटाफट निकल जाओ। कलकत्ता की ट्रेन पकड़ो और बंदरगाह पहुंचो। वहां हुगली किनारे सूरीनाम क्वार्टर ढूंढ लेना। वहां वान देर बर्ग साहब मिलेंगे। हमारा नाम बताना। बाक़ी बंदोबस्त वे खुद कर देंगे।"
मुंशी जी जानते थे कि घर वाले अनुमति नहीं देंगे। सो वे सीधे कानपुर से सीधे कलकत्ता जा पहुंचे। वान देर बर्ग से मिले। वह एक डच था। उसने मुंशी जी से एक करार यानी एग्रीमेंट पर दस्तखत कराए। एग्रीमेंट पर साइन करने के बाद मुंशी जी एग्रीमेंटिया हो गए। एग्रीमेंटिया शब्द ही मज़दूरों की ज़बान से खेल करता हुआ गिरमिटिया बना।
जहाज़ में 950 भारतीय मजदूर थे। जहाज़ डच गयाना जा रहा था। सूरीनाम दरअसल डच कॉलोनी थी और पहले उसे डच गयाना ही कहा जाता था। 
सपना जहाज़ में टूटने लगा। मज़दूरों को न सुविधा और न सम्मान। तिस पर लगभग महीने भर की यात्रा। रहमान सब कुछ सहकर सूरीनाम पहुंचे तो और भी बड़ा झटका लगा। उनको सरदारी नहीं मज़दूरी का काम मिला। कोमल हाथों वाले युवक की हथेलियों में छाले पड़ने लगे। मज़दूरी काम को तौल कर मिलती। हफ्ते में छह सेंट कमाना ज़रूरी। न कमा पाओ तो तीन दिन जेल में। मुंशी जी को कभी जेल नहीं जाना पड़ा। छाले धीमे-धीमे ढट्ठों (calluses) में बदलने लगे। एक दिन ऐसा भी आया कि उन्हें मज़ा आने लगा। वहां के मज़दूरों में भारतीयों के अलावा स्थानीय इंडियन, चीनी, जावा निवासी और क्रियोल समेत अनेक क़ौमें थीं। वे सबके साथ घुलने-मिलने लगे। गौरांग डच मालिकों के साथ भी उनके रिश्ते थे। आख़िरकार वे पढ़े लिखे हिन्दुस्तानी थे। हिंदी, उर्दू और फारसी के साथ अंग्रेज़ी का भी कुछ ज्ञान था। नतीजा यह हुआ कि वे धीमे-धीमे वे जावा, चीनी और क्रियोल मज़दूरों के साथ उनकी भाषा में थोड़ा-थोड़ा बोलने लगे। यही नहीं, वे अपने मालिकों की भाषा डच का भी ज्ञान रखने लगे। बाद में जब वे सरदार बने तो उन्हें ज़बानों का बड़ा फायदा मिला। उन्हें मज़दूर की भाषा भी आती थी और मालिक की भी।
पांच साल लंबी मज़दूरी के दौरान दो काम मुंशी जी बेनागा करते थे। पहला देवनागरी में डायरी लिखना। और, दूसरा शाम की चौपाल में रामचरित मानस का पाठ और किस्सागो अंदाज़ में पाठ की व्याख्या। मन आने पर वे महाभारत व अन्य ग्रन्थों पर भी चरचा कर लिया करते थे।
क्या उन दिनों जायसी, रसखान और रहीम बनने की कोई रवायत थी? पता नहीं। पर इतना पता है कि मुंशी जी को इस बात का बड़ा गर्व रहा करता था कि वे हिन्दू धर्म और कर्मकांडों को प्रोफेशनल पंडितों से बेहतर जानते हैं। उन्हें लोग कई बार पंडिज्जी और रामायणी जी के नाम से संबोधित भी किया करते थे।
अद्भुत आदमी था। नमाज़ के पाबन्द इस आदमी को पंज अरकान पर भी पूरी श्रद्धा थी। जिस रवानी से वे रामायण सुनाते थे, वैसे ही वे हदीस और इस्लामी इतिहास पर चरचा कर लेते थे। पर चौपाल तो हिंदुओं के नाम थी।
मुंशी जी ने पांच साल मज़दूर की ज़िंदगी जी। एग्रीमेंट के मुताबिक वे अब स्वतंत्र थे। वे हिंदुस्तान लौट सकते थे या वहीं बस कर जो चाहते कर सकते थे। उन्होंने वहीं रहने का फैसला किया। पांच साल में उन्होंने काफी नाम कमाया था। सो, वे जा पहुंचे रेल लाइन बिछा रहे ठेकेदार के पास। उसने तुरंत सरदारी यानी सुपरवाइजरी का काम दे दिया। मुंशी जी ने वहीं शादी कर ली और कालांतर में खेती के लिए जमीन भी खरीद ली। उन्होंने सूरीनाम की राजधानी पारामारिबो में घर ले लिया। अब वे सरदार भी थे, किसान भी और हिंदुस्तानियों के नेता। समाजसेवा के लिए उनको नीदरलैंड की महारानी ने दो बार स्वर्ण पदक से नवाजा भी। अपने दोहों में वे महारानी के प्रति इसीलिए कृतज्ञता जताते हुए कहते हैं:

लेतरकेंदख स्‍वर्ण पद दीन्‍ह क्‍वीन युलियान।
अजरु अमर दंपति रहैं प्रेन्‍स देंय भगवान।।


खेती, नौकरी, समाजसेवा और रामायण बांचने के साथ मुंशी जी अपनी आत्मकथा 'जीवन प्रकाश' लिखते रहे। भारतीय समाज वहां मज़बूत होता गया। (आज सूरीनाम के राष्ट्रपति का नाम चान संतोखी है। चान चन्द्रशेखर का शार्ट फॉर्म है)। मुंशी जी  पुस्तक में दोहों, चौपाइयों और कुंडलियों आदि जरिए वहां बसे हिंदू-मुसलमानों को नैतिक शिक्षा देते नजर आते हैं। पुस्तक में एक टुकड़ा दुख का भी है, जब 1930 के दशक की शुरुआत में वहां साम्प्रदायिकता फैल जाती है। मुंशी जी  इसके लिए कुछ संगठित समूहों का नाम भी लेते हैं। इनमें जिहादी मानसिकता वाले बाहरी तत्व हैं। शुद्धिकरण और बॉयकॉट के नारे लगने लगते हैं। 
मुंशी जी बड़े कष्ट से बताते हैं कि बॉयकॉट का ऐलान उनकी बेटी की शादी में हुआ। शादी में आए मेहमानों में एक थे इमाम कल्लन मियां और दूसरे थे ठाकुर पुरुषोत्तम सिंह। इन दोनों के बीच किसी बात पर मौखिक द्वंद्व हुआ तो बात बढ़ गई। चूंकि साम्प्रदायिक संगठनों ने हवा में बारूद पहले ही उड़ा रखी थी इसलिए मेहमानों के दो हिस्सों में बंटते देर न लगी। रहमान मियां रामायणी कुछ न कर पाए और सवर्णों ने मुसलमानों एवं दलितों के सामाजिक बहिष्कार का एलान कर दिया। रहमान हंसते हुए कहते हैं कि दलितों का बहिष्कार टिक न सका क्योंकि कई ब्राह्मणों की रोटी दलितों के घर पूजा-पाठ से ही होती थी। वे बताते हैं कि पागलपन यहां तक बढ़ा कि जब बकरीद हुई तो हिंदुओं ने मुसलमानों को चिढ़ाने के लिए सुअरों की 'बलि' दे डाली।
यह वैमनस्य करीब दस साल तक चला। फिर यह अपने आप फिस्स हो गया। दोनों संप्रदायों में फिर वैसे ही मधुर रिश्ते हो गए। मुंशी जी फिर रामायणी हो गए और लम्बा व शानदार जीवन जीते हुए 98 साल की उम्र में 1972 में यह दुनिया छोड़ गए। 

अंत में उनकी कुछ रचनाओं का आनंद लीजिए:



ईश्वर का सुयश (अरियल छंद में) / 

जय जय अविनाशी, घट घट वासी,
         जगत उदासी, सुयश तोर श्रुति माहिं बखाना।
                  जयति जयति जय कृपानिधाना।। टेक।।
जय जय ईश्‍वर, तुम परमेश्‍वर,
                 हो जगदीश्‍वर, सब उर बास ठिकाना।
त्रैलोक उजागर, सब गुण आगर,
                 करुणासागर, नाम तोर नाशैं अघ नाना।
                          जयति जयति जय कृपानिधाना।। 1

रावण कुंभकरण भट भारी, कंसादिक रहे अत्याचारी,
तिन कहं मार गरद कर डारी, नाश कीन्‍ह उन कर अभिमाना।
बलि को तुम पाताल पठायो, हिरनाकुश को गर्व नशायो,
कृपा कीन्‍ह प्रहलाद बचायो, जपत अखंड नाम भगवाना।।
                          जयति जयति जय कृपानिधाना।। 2

डूबत तुम गजराज बचायो, चीर द्रोपदी केर बढा़यो,
रंक सुदामा नृपति बनायो, दीन्‍हें कंचन महल खजाना।
कीर पढा़वति गणिका तारयो, अजामिल से खल बहु उद्धार यो,
दुष्‍ट ताड़का को तुम मारयो, धनु पर साध बिना फर बाना।।
                          जयति जयति जय कृपानिधाना।। 3

नेति नेति कहि वेद पुकारैं, शेष शारदा यश कहि हारैं,
कोटिन बरस मुनी तन जारैं, मरम तोर तिनहूँ नहीं जाना।
मैं मतिमंद कहूँ केहि भांती, कबहुँ न यश कहि जीभ अघाती,
नाम तुम्‍हार जुडा़वति छाती, प्रेम सहित सुमिरै रहमाना।।
                          जयति जयति जय कृपानिधाना।। 4

xxxx
दोहे हदीस पर

हदीस कुरान का सार है हृदय मध्‍य मथ लेव।
खुदा रसूल के हुक्‍म दोउ इनमें नहिं कछु भेव।।
इनमें नहिं कछु भेव चलैं मुस्लिम सुख पावैं।
मेटें हुक्‍म रसूल खुदा के सोइ काफिर कहलावैं।।
करैं रहमान अर्ज यह रब से दे इमान नफीस।
करैं बंदगी तोर सब मानहिं कुरान हदीस।।



स्वराज

नौरोजी, मिस्‍टर गोखले, गंगाधर आजाद।
मोतीलाल, पति, मालवी इनकी रही मर्याद।।
इनकी रही मर्याद बीज इनहीं कर बोयो।
भारत लह्यो स्‍वराज नाम गिरमिट का खोयो।।
कहें रहमान कार्य शूरन के की‍न्‍ह साज बिनु फौजी।
मुहम्‍मद, शौकत अली, अरु चंद्रबोस, नौरोजी।। 1

हौरा पहले से रह्यो हुइहै हिंद स्‍वराज।
यदि स्‍वराज के कारने जूझे बहु सिरताज।।
जूझे बहु सिरताज राज हित प्राण गँवाए।
गांधी, जिन्‍ना, नेहरू सब की आश पुराए।।
कहें रहमान रहे गुण आगर नहिं माँगे इन कौरा।
बिनु हिंसा बिनु खून के राज लीन्‍ह बिनु हौरा।। 2


दोहा

सागर श्रुति रसचंद्र की वर्ष इस्‍वी आज।
मास सिद्धि तिथि पंद्रहवीं पायो हिंद स्‍वराज।।
गांधी, जिन्‍ना, नेहरू, अद्भुत कीन्‍हों काम।
सारे जग डंका बज्‍यो अमर कीन्‍ह निज नाम।।
अमर कीन्‍ह निज नाम राज भारत कर लीन्‍हों।
उड़यो पताका सहस वर्ष पर घर घर उत्‍सव कीन्‍हों।।
कहें रहमान प्रतापी सज्‍जन करें कार्य सत साधी।
पायो राज स्‍वराज अब जिन्‍ना नेहरू, गांधी।। 3


दोहा

सिधि पदार्थ ग्रह सौर की वर्ष ईस्‍वी शोक।
मास ईश तिथि मास दिन गांधी गए सुर लोक।। 2





Post a Comment

0 Comments

if you have any doubt,pl let me know

Post a Comment (0)
To Top