चन्द्रमा की मध्यस्यतता

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मैं कल ही कॉलिज की कुछ दिन की छुट्टियों के कारण शहर से गांव आया हूँ
गांव में आंगन है काफी खुला खुला।
शहर में आंगन नही होते।
शहरों में आसमान भी नही होते। 
मैंने इंद्रधनुष देखना होता है 
तो अपने गांव आजाता हूँ।
कल रात को 
आसमान को तकते देखा कि
चन्द्रमा भी है
काफी दिनों से चन्द्रमा के दर्शन भी नही हुए थे
गौर से देखा 
तो खयाल आया
के उसके यहां तो शहर में भी बड़ा सा आंगन है
वो भी इस समय चन्द्रमा को देख रही होगी 
बस 
फिर जो आंखें जैसे चन्द्रमा पर ठहर गयीं
शुरू हो गयी उससे बातें 
जैसे चन्द्रमा न हो 
वार्ता यन्त्र हो
मेरे और उसके बीच
मैं और वोह
और बीच में चन्द्रमा।
कितना अजीब एहसास है।
चन्द्रमा के माध्ययम से उससे मिलने में
उसकी आँखों में झांकने में
उससे बतियाने में।
यूँही आत्मसात हो जाने में
ए चन्द्रमा तुम यूँही आकाश पर चमकते रहना
घटना बढ़ना
लेकिन बने रहना 
ताकि में उससे बातें कर सकूं 
तुम्हारे माध्ययम से।
लेकिन हां
कहीं यह तो नही सोचने लगे कि मैं तुम में उसे खोज रहा हूँ।
तुम वैसे नही
उससे तुलना भी नही
तुम केवल मध्यस्थता कर रहे हो।
वो तो तुमसे अलग
अतुलनीय है
मेरा जीवन है उसमें
मेरा अंत है उसमें।

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