Khas Khabar : प्रदूषण के सूक्ष्म कण बिगाड़ रहे जेनेटिक संरचना

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  • वाहनों के धुएं से निकलने वाले डीजल पार्टिकुलेट मैटर सर्वाधिक घातक


प्रारब्ध न्यूज ब्यूरो, लखनऊ 


ठंड की दस्तक के साथ वातावरण में प्रदूषण का स्तर बढ़ने लगा है। सरकारी मशीनरी से लेकर हुक्मरान लगातार पीएम-10 (पार्टिकुलेट मैटर) से लेकर पीएम-2.5 पर जमकर चर्चा करते हैं। इसकी रोकथाम के लिए कवायदें भी होती हैं।


पीएम-1 से लेकर डीजल चलित वाहनों से उत्सर्जित धुंए से निकलने वाला डीजल पार्टिकुलेट मैटर (डीपीएम) को लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है। विशेषज्ञों को कहना है कि यह श्वसन तंत्र से होते हुए फेफड़े की सुक्ष्म नलिकाओं से होते हुए सेल्स (कोशिकओं) में पहुंच जाता है। इन सुक्ष्म कणों से ही शरीर की जेनेटिक संरचना बिगड़ रही है, जो कैंसर जैसी घातक बीमारी की वजह बन रही है।



शहर और आसपास के क्षेत्रों में बड़े संख्या में कारखाने एवं फैक्टियां हैं, जो प्रदूषण फैलाते हैं। विकास कार्यों की वजह से जगह-जगह हो रही मिट्टी की खोदाई और इस वजह से जगह-जगह लगाने वाले जाम में फंसने वाले वाहनों का धुआं शहर की आबोहवा को प्रदूषित कर रहा है।


पीएम-10 से लेकर पीएम-2.5 तक के सुक्ष्म कण तो दिखाई पड़ते हैं। इसमें से पीएम-10 नाक से लेकर गले के अंदर ही रह जाते हैं, जबकि पीएम-2.5 श्वांस नली से लेकर फेफड़े तक पहुंच जाते हैं।


वहीं, पीएम-1 और डीपीएम बहुत सुक्ष्म होने की वजह से आंखों से दिखाई भी नहीं पड़ते, इन्हें माइक्रो स्कोप से देखा जा सकता है, इसलिए माइक्रो पार्टिकल भी कहते हैं। यह श्वांस नली से होते हुए फेफड़े की पतली नलिकाएं, जो हवा से ऑक्सीजन लेकर ब्लड को पहुंचाती हैं उसके माध्यम से खून से होते हुए डीएनए

(डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड) तक पहुंच कर प्रभावित करने लगते हैं।


प्रदूषण में रहने से क्रोमोसोम यानी गुणसूत्र की प्रकृति बदलने लगती है। जो आगे चलकर फेफड़े में लंग्स फाइब्रोसिस से लेकर लंग्स कैंसर की वजह बनती है।


कड़े हो जाते फेफड़े

लंबे समय तक प्रदूषण वाले क्षेत्र में रहने से फेफड़े की सिकुड़ने की क्षमता कम होने लगती है। उनमें कड़ापन आने लगता है, जो फाइब्रोसिस, इंटर इस्टीरियल लंग्स डिजीज से लेकर कैंसर की वजह बनता है।


प्रदूषण के साथ-साथ खानपान की बिगड़ी आदत भी समस्या बन रही है। शहरी क्षेत्र में वाहनों के धूएं से निकले वाला डीजल पार्टिकुलेट मैटर एवं माइक्रो पार्टिकल फेफड़ों के लिए सर्वाधिक घातक साबित हो रहे हैं। इसलिए वाहनों की फिटनेस के समय प्रदूषण पर खास फोकस किया जाए। तीन से चार साल तक प्रदूषित क्षेत्र में रहने से डीएनए प्रभावित होने लगता है। इसको लेकर देश-विदेश में शोध भी चल रहे हैं।


प्रो. सुधीर चौधरी, वरिष्ठ प्रोफेसर, रेस्पिरेट्री मेडिसिन, जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज, कानपुर

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